अलविदा अदिति : कैसा था चाहत का परिणाम




 अदिति ने अपनी जिंदगी के रंगीन ख्वाब देखे तो किसी और के साथ थे पर अमन को देख कर वह प्यार की डगर से हट कर आसान मंजिल की तरफ बढ़ गई. उस की इस चाहत का परिणाम आखिर क्या निकला?

दिल्ली की चौड़ी सड़कें , चारों तरफ चहलपहल, शोरशराबा, विभिन्न परिधानों में चमकती पंजाब , बंगाल और पहाड़ी लड़कियां तरह तरह के इत्रों से महकता वातावरण…
वो दिल्ली  छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए अपने शहर इलाहबाद वापस जा रही थी. लेकिन अपने वतन, अपने शहर, अपने घर जाने की कोई खुशी उस के चेहरे पर नहीं थी. चुपचाप, गुमसुम, अपने में सिमटी, मेरे किसी सवाल से बचती हुई सी. पर मैं तो कुछ पूछना ही नहीं चाहता था, शायद माहौल ही इस की इजाजत नहीं दे रहा था. हां,

ऐसा लगा कि दोनों तरफ भावनाओं का गंगा अपने उफान पर है. हम दोनों ही कमजोर बांधों से उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे.
तभी अदिति की ट्रेन की घोषणा हुई. वह डबडबाई आंखों से धीरे से हाथ दबा कर चली गई ।
3 वर्षों पहले हुई जानपहचान की ऐसी परिणति दोनों को ही स्वीकार नहीं थी , कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जैसे बरसात के दिनों में रुके हुए पानी में कागज की नावें तैराना , ये नावें तैरती तो हैं, पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं. शायद हमारा रिश्ता ऐसी ही एक किश्ती जैसा था ।

                        वो  कागज़ की कश्तिया अब जवान हो गई ,
                     वो गांव की पंगडंडिया शहर में आलीशान हो गई।।   

पढ़ाई  के लिए मैं यूपी से दिल्ली आया तो यहीं का होने की सोच लिया , दिलोदिमाग में कुछ वक्त यह जद्दोजेहद जरूर रही कि अपनी गांव जा कर घर वालो के साथ रहूंगा , लेकिन स्वार्थ का पर्वत ज्यादा बड़ा निकला और गांव का छोटा. लिहाजा, यहीं रहना का मान ।
शुरू में बहुत दिक्कतें आईं. अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले जाट , गुजर  समुदाय में किसी का भी टिकना बहुत कठिन है. बस, एक जिद थी, एक दीवानगी थी ।
पहली बात यह समझ आई कि भोजपूरी  से हरियाणवी वैसे ही भड़कता है । सो, मैं ने हरियाणवी भाषा पर मेहनत शुरू की. हरियाणवी में अपनी भाषा, अपने भोजन व सुंदरता के लिए ऐसी शिद्दत से चाहत है कि आप भोजपूरी में किसी से पता भी पूछेंगे तो जवाब यही मिलेगा, बिहारी साला....

दिल्ली की तेज रफ्तार जिंदगी के लिए  3 शब्दों  ‘काम करना, घूमना , और बंदिया ताड़ना  यह बात मुझे वहा  कर पाता चला, मैं कुछकुछ इसी जिंदगी के सांचे में ढल रहा था, अदिति मिली.
अदिति से मिलना भी बस ऐसे था जैसे ‘यों ही कोई मिल गया था ताड़ते हुआ , वो ग्राउंड पर मिली थी हैं क्रिकेट खेलने जाते थे और वो फुटबॉल ।


अदिति से दोस्ती हो गई, रोज  मिलने जुलने का सिलसिला शुरू हुआ. वह इलाहबाद , यूपी से थी. पिताजी टीचर थे । वह भी टीचर बनाने की तैयरियां में थी ।
ज्यादातर सप्ताहांत, मैं अदिति के साथ ही बिताने लगा. वह बहुत से सवाल पूछती, जैसे ‘आप जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं?’
‘हम बचपन में सांपसीढ़ी खेल खेलते थे, मेरे खयाल से जिंदगी भी बिलकुल वैसी है…कहां सीढ़ी है और कहां सांप, यही  जीवन  है और यही रोमांच है,’ मैं ने अपना फलसफा बताया.


आप के इस खेल में मैं क्या हूं, सांप या सीढ़ी?’ बड़ी सादगी से उसने ने पूछा.

‘मैं ने कहा न, यही तो रहस्य है.’

                      यूं तो दिल बहलाने के लिए उनको दिल दिया था ,
                    मगर अब उनके तैरे-ऐ-इश्क पर मेरी  ज़िन्दगी कुर्बान ।।

मैं जॉब शुरू किया , मैं ज्यादा व्यस्त होता गया. तो उनसे मिलना बस इतवार को ही हो पाता था ।

कम मिलने की वजह से हम आपस में ज्यादा नजदीक हुए. एक इतवार को मेट्रो स्टेशन पर हैम लोग बैठे थे तो उन्होंने ने कहा, ‘मैं आप को आई एल कहा करूं?’

‘भाई, यह ‘आई एल’ क्या है?’ मैं ने अचकचा कर पूछा ।

‘आई एल, यानी इमरती लाल, इमरती हमें बहुत पसंद है. बस यों जानिए, हमारी जान है, और आप भी…...........

‘एक बात पूछूं, क्या आपके पापा मम्मी को अदिति मंजूर होगी?’ उस ने पूछा.

मैं ने पहली बार गौर किया कि मेरे पापा मम्मी को ..….

‘अदिति, अगर बेटे को मंजूर, तो मम्मी पापा को भी मंजूर,’ मैं ने जवाब दिया.

अदिति ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. शायद बंद आंखों से वह एक सजीसंवरी दुल्हन और उस का दूल्हा देख रही थी. इस से पहले उस ने कभी मुझ से शादी की इच्छा जाहिर नहीं की थी. बस, ऐसा लगा, जैसे वो दबेपांव चुपके से बिना दरवाजा खटखटाए मेरे घर में दाखिल हो गई हो.....

                          मुकम्मल मोहबात की तलाश में चल रहा हूं मैं ।
                कोई बच्चा हैं मुझमें जो बेवजह ख्वाब बुन रहा है।।


मैं ज्यादा व्यस्त होता गया, सुबह जॉब पर जाना और शाम को वापस आना,  पर दिन में अदिति से फोन पर बात जरूर होती. अब मैं आने वाले दिनों के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचता कि इस रिश्ते के बारे में मेरे पापा मम्मी और उस के पापा, को कैसे और कब बताऊंगा , हम एकदूसरे से निभा तो पाएंगे?

एक दिन अदिति ने फोन कर के बताया कि  , कुछ दिनों के लिए वो इलाहबाद जा रही है तो हम कुछ दिनों के लिए आपस में मिल नहीं पाएंगे ।


धीरेधीरे अदिति  ने फोन करना कम कर दिया. कभी मैं फोन करता तो उससे  बात कम ही  होती, वह अमनपुराण ज्यादा बांच रही होती. जैसे, अमन बहुत अच्छा है, कई जगह दिल्ली में उसके पापा का nike का showroom Hain । उस का अपने गांव में खूब नाम है । अमन का जिस से भी शादी होगा, उस का समय ही अच्छा होगा.

मुझे बहुत हैरानी हुई उनका को अमन के रंग में रंगी देख कर. मैं ने फोन करना बंद कर दिया.


                               तुम लौट के आने का तकल्लुफ मत करना,
                                 हम एक मोहब्बत को दो बार नहीं करते !!


जैसे बर्फ का टुकड़ा धीरेधीरे पिघल कर पानी में तबदील हो जाता है, उसी तरह मेरा और अदिति का रिश्ता भी धीरेधीरे अपनी गरमी खो चुका था. रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार, एक घर बसाने का सपना, एकदूसरे को खूब सारी खुशियां देने का अरमान, सब खत्म हो चुका था.

इस अग्निकुंड में अंतिम आहुति तब पड़ी जब उसने ने फोन पर बताया कि वो अमन से मिली थी और उसके साथ मुझे फोटो भेजी । मैं ने मुबारकबाद दी और कॉल कट कर  दिया ।

कई महीने गुजर गए. शुरूशुरू में उसकी की बहुत याद आती थी, फिर धीरेधीरे उस के बिना रहने की आदत पड़ गई. एक दिन वह अचानक मेरे घर में आई. गुमसुम, उदास, कहीं दूर कुछ तलाशती सी आंखें, उलझे हुए बाल , मैं उसे कहीं और देखता तो शायद पहचान न पाता. उसे बैठाया, फिर अमन और उस के बारे में पूछा.

अमन एक धोखेबाज इंसान था, वह सब झूठ बोला था और उसने फेसबुक पर के लड़कियो को gf बनाया है । समय रहते  पता चल गया और मैं उसे छोड़ दी ,  उसने जवाब दिया.

‘ओह, मैं ने धीमे गरदन हिलाई. फिर पूछा ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘मैं आज शाम की ट्रेन से वापस इलाहबाद जा रही हूं , स्टेशन तक मेरे साथ चलते तो बहुत अच्छा लगता ।

‘मैं जरूर आऊंगा.’

शायद वह चाहती थी कि मैं उसे रोक लूं. मेरे दिल के किसी कोने में कहीं वह अब भी मौजूद थी. मैं ने खुद अपनेआप के लिए सोचा ,
 हम वो नदी हैं जिनपर कोई पुल नहीं है. अब कुछ ऐसा बाकी नहीं है जिसे जिंदा रखने की कोशिश की जाए.

अलविदा…अदिति…अलविदा…

                      ऐतराज़ अक्सर खुशियों को होती हैं।
                     मैंने गमों को नखरे करते नहीं देखा ।।

 

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